Wednesday 20 June 2012

ढाबे, राजमार्ग और ट्रक का धुआं.! : क्षितिज रॉय



कल रात को देहरादून से लौट रहा था. मेर्सदेस बेन्ज़ वाली बस थी...मन ही मन फूल के कुप्पा हो रहा था की आखिरकार चढ़ने का मौका तो मिला! चढ़ते ही बिसलेरी किउ बोतल थमा दी...पीछे वाली सीट पे बैठी मोहतरमा पांच मिनट से आंग्ल भाषा में बस वाले को ऐ सी नहीं चलाने के लिए गरिया रही थी.....आज कल पता नहीं क्यूँ मुझे अंग्रेजी भाषा कम और स्टेटस ज्यादा लगती है...जैसे भाषा नहीं कोई जाति हो....! कुछ मिनटों में बस निकल पड़ी....मैं भी सोने की कोशिश करने लगा....पीछे धाराप्रवाह अंग्रेजी स्पीकिंग क्लास चालू थी. शायद अब मोहतरमा 'इंडियन ओसन' और 'परिक्रमा' के बारे में अपनी राय रख रही थीं....इंडियन folk म्यूजिक के सिरमौर इन बैंड को दिल्ली ने पिछले पांच साल में मुझे भी सुना दिया है....! जबरदस्ती ही सही, पर सुना है. सच कहूँ तो इन बैंड्स से वैसे जुड़ ही नहीं पाया हूँ जैसे कुमार शानू, अलका याग्निक और नदीम श्रवण को सुनकर मंत्रमुग्ध होता था...राजा फिल्म में अंखिया मिलाती माधुरी को देख भागलपुर के शारदा सिनेमा में 6 साल की उम्र में जो पहला प्यार हुआ था उसकी गर्माहट अब पीवीआर प्रिया में दीपिका के ठुमकों में नहीं मिलता! कन्दिसा या desert rain ने अब तक नहीं रुलाया है, हाँ लता जी ने कई बार रुलाया है. सन २००८ में दिल्ली आने पर ' लिंकिन पार्क' का नाम सुना था तो लगा था जैसे पटना के 'हार्डिंग पार्क' का कोई भाई हो, बाद में सुनने लगा. मोबाइल के प्ले लिस्ट में अब भी मुन्नी और उमराव जान ही राज करती हैं....शकीरा और रिहाना समझ में ही नहीं आती.
खैर, जब बस चली, मेरी आँख नहीं लगी. बचपन याद आने लगा. बरसात की छुट्टी में नानी घर जाता था. मोतिहारी. यात्रा का रोमांच क्या होता है तब कोई पूछता तो बताता...रोंगटे खड़े रहते थे....हर कुछ नया लगता था....रांची में बस अड्डा खादगढ़ा में होता था ..अब भी है....सच में वहां इतना कीचड़ होता था की किसान खाद बना ले उससे! रिक्शे से उतारते ही अपनी बस खोजने लगता था..वो बुल्लू वाली होगी शायद...नहीं ये लाल वाली है....अरे भक...इ ता उज्जर है..! बस के अगले शीशे पे लगी भुक्भुकिया लाइट को मिनटों देखता रहता था.....पापा आदतन डाँटते रहते थे...देखिये बकलोल कीचड़ में खड़ा है...अरे निकालो वहां से बुरबक! निकल तो जाता था पर निगाहें 'अमर ज्योति' की भुकभुकाती ज्योति से हटती ही नहीं थी.....लाल का पीला हो के हरियर हो जाना कम ही देखा था तब...! बस में घुसते ही बहन से झोंटा-झोंटी होना आम था तब...कारण होता था खिड़की का आधिपत्य! हमको उलटी होता है....वो कहती थी....हमको भी..मैं चिल्लाता था....पीछे से माँ चिल्लाती थी...अरे बईठोगे पहले....बारी-बारी से बैठ लेना न....! हम कहाँ मानते थे...नोच लेते थे...फिर सुप्रीमो पिताश्री आके घुर देते थे...पापा से डरते थे हमलोग.....!'बैठो तुम हजारीबाग तक..हम वहां से बैठ लेंगे', मैं बड़ा था लिहाज़ा किनारे आजाता था.
आज इस बस में खिड़की वाली सीट मिली है..पर खिड़की पे बैठ के मजा नहीं आ रहा है..! तब खिड़की सम्मोहित कर देती थी....अँधेरे में कुछ दिखता नहीं था पर घंटों झांकता रहता था...बच्क्ग्रौंद में लता जी 'वादा ना तोड़' की गुहार लगाती थी..और मैं सोचता रहता था की 'राजा' फिल्म की माधुरी मुझसे ये कह रही है....! लता जी और हिंदी गानों से मेरी दिल्लगी शायद तभी शुरू हुई थी..! रात के अँधेरे में रजौली, नवादा, बख्तियारपुर, बाढ़, मोकामा...गंगा जी वाला राजेंदर पुल सब याद रखता था....सब सो जाते थे..सिर्फ मैं और वो खलासी जागते थे..!
सच मानिए मैंने अपने प्रारंभिक जीवन में पहला करियर खलासी का चुना था......जिस शान से वो मुह में तिरंगे की पीक दबाये..और कान में लिक्खो फेक्को पेन दबाये दरवाजे पे खड़ा हो के आस -पास के राहगीरों को दुतकारता था.......सटले तो गेल्ले बेट्टा.....ये सुन कर उस रात मैं खलासी बनने की कसम खा लेता था! शुक्र है की कभी अपने शिक्षक पिता के सामने इस रहस्य का रहस्योद्घाटन नहीं किया....भगवान् जाने क्या होता!
इस वोल्वो में खलासी की जरुरत ही नहीं है....! ना कोई गीत है न संगीत...बस ऐ सी के भनभनाने और पिछली सीट पे बैठी मोहतरमा के अपने पुरुष मित्र के साथ अंग्रेजी में चहचहाने की आवाज़ है....कर्कश है! मेरी अमर ज्योति का ड्राईवर हज़रिबघ पहुँचते ही मिथुन चक्रवर्ती को चला देता था.....कोई बेनाम सा टीवी सेट हुआ करता था पर आधे लोग ऊँकडू हो के बैठ जाते थे..अरे भाई विडियो कोच का भाडा दिए हैं..फिल्लिमा कैसे नहीं देखेंगे! फिलिम निहायती घटिया जरुर होती थी पर तब वही प्यारी लगती थी.....माँ के लाख डांटने पर भी सोते नहीं थे....फिर ढाबा आजाता था. फिलिम बंद हो जाति थी..और मैं उतरने के लिए बेताब.
ढाबा अमूमन नवादा या नालंदा के पास होता था...! उजले रंग का मरकरी लटकता रहता था जिसके उजले प्रकाश में भिनभिनाती मक्खियाँ दूर से ही दिख जाती थीं! ममता, सुनीता या आम्रपाली के नाम से होते थे ये ढाबे. नारंगी रंग से पुती दिवार पर काले रंग से लिखा होता था.....'ममता ढाबा, बाईपास NH ३४, नवादा, बिहार. यहाँ नाश्ते और भोजन का उत्तम प्रबंध है!' उसी रूट की कुछ और बसें आकर रुकी होती थी....भानु, कृष्णा रथ, विजय रथ , धरम रथ....भांति भांति के रथ होते थे..मैं मन ही मन सोचता था पापा ने फलां रथ में टिकेट क्यूँ नहीं कटवाया! उस बस का भुक्भुकिया तगड़ा है, उसमे गाना जोर से बजाया है...!!
माँ घर से पूरी भुजिया आचार लाती थी...बोलती थी की ढाबा का खाना अच्छा नहीं होता...हम जिद पे अड़ जाते...नहीं ड्राईवर साहेब जो खा रहे हैं वहीँ खाएंगे.......रोटी, तरका, आमलेट और गोटा प्याज ! ढाबा बदलाव था, नयापन था. वही पहली बार अपनी बस के ड्राईवर को शीशे की ग्लास में कुछ काला-लाल सा पीते देखा था,पापा से प्रश्नोत्तर किया तो झिडकी मिली थी ...'बित्ता भर का हुआ नहीं की CID बनते फिरता है..! पापा पास वाले पान दुकान में पान खाने जाते तो हम भी पीछे हो लेते थे.....उस समय मोर्टन बिकती थी..लोगे?, पापा पहुचते थे.....मेरा ध्यान पापा की पान पर होता था ....मोर्टन तो कभी बादो में खा लेंगे....सकुचा कर देखता तो पापा समझ जाते....'एक ठो छोटका मिट्ठा पट्टी लगा दो जी'......पापा पे प्यार आ जाता था. बड़ा होने की गफलत में पान चबाता बस में चढ़ता तो खलासी से निगाहें मिलाता था....अब हमहूँ तुमरे जैसे लग रहे हैं..! माँ गुस्साती थी....तो लगता माँ सच में लड़की ही हैं.....और हम लड़का!! लगता था माँ फ़िज़ूल में बात-बात में दर जाती है! बस का इंजन जैसे ही खुलता मेरी निगाहें पापा को खोजने लगती थीं....कहीं ड्राईवर साहेब छोड़ तो नहीं देंगे पप्पा को...मैं घबराता..फिर धकियाते लोगों के बीच से जब पापा प्रकट होते तो सब कुछ भूल कर फिर खिड़की से बहार देखने लगता था! ट्रक के धुंए की महक भी तब ही सूंघी थी....राजमार्ग से मुहब्बत भी तभी हुई थी!
इस वोल्वो में बाहर से हवा नहीं आती है.....उस अमर ज्योति में मैं पूरी ताकत से शीशा सरकाता था...वो हवा बड़ी ठंडी लगती थी....बंद शीशों से जिंदगी नहीं दिखती, हाँ खुद की परछाई जरूर दिखती है! रूरकी के पास का यह ढाबा,दरअसल ढाबा नहीं ढाबे की भोंडी, पूंजीवादी नक़ल है. यहाँ खटिया तो है पर वो खालिस भदेस महक गायब है....ट्रक का वो धुआं गायब है, पान वाला तो है पर वो पापा का दर, वो पहले पान की ख़ुशी नहीं है बस ड्राईवर आज भी उस काली चीज़ को शीशे के ग्लास में पी रहा होगा पर मैं अब बित्ते भर का CID नहीं रहा!! मेरी भूख न जाने क्यूँ मर सी गयी है! मैं सिगरेट लेने के लिए बढ़ता हूँ. अपनी बस की खिड़की के नीचे खड़ा दो कश खींचे ही थे की मेरी आगे वाली सीट पे बैठी बच्ची मुझे दिख गयी...! मैंने भी बचपन में कई बार 'अमर ज्योति' की खिड़की से सिगरेट पीते लोगों को देखा था....मुझे वे अजीब लगते थे....डर भी लगता था.....! मैं बच्ची को देखता हूँ....एक अपराधबोध से ग्रस्त हो सिगरेट फ़ेंक देता हूँ....फिर अन्दर आ के बैठ जाता हूँ..! मोहतरमा अब भी चालू है....अब उनकी अंग्रेजी मुखारविंद से 'व्हाट द फक्क' सुन के मुह से 'भक्क' निकल जाता है.....शुक्र है उत्तराखंड में भक्क समझने वाले कम ही हैं, मोहतरमा को तो मुह पे 'लोल' भी बोल देंगे तो समझेंगी की फसबूकिया 'लोल' बोल रहे हैं!
बस फिर से चल पड़ी है....पापा से मिले उस मीठे पान की खुसबू राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या ३४ के किसी मोड़ पे खो गयी हैं. सुबह सुबह मैं डेल्ही में होऊंगा जहाँ कोई मेरा इंतज़ार नहीं कर रहा होगा, अमर ज्योति जब मोतिहारी पहुँचती थी तो मामा, मौसी और नाना खड़े मिलते थे!!
अब दिल्ली में प्रवासी छात्र की तरह से रहते हुए पाँच साल होने को आये हैं, भतेरे वाद, भतेरे ब्रांड्स, भतेरे व्यक्तित्वों से पाला पड़ा है....पर न जाने क्यूँ मुखर्जी नगर की सड़कों पे चलते चलते आज भी अपना मुस्स्लापुर और महेन्द्रू खोजता फिरता हूँ, इ-पोड के प्लेलिस्ट में भले ही कितने ग्रीन डेस और इंडियन ओसन पड़े रहें रिक्शे वाले के चायनीज़ मोबाइल में बजते छठ गीत को सुनकर आज भी आँखे नाम हो जाती है! इस भागती-मारती-बौराई दिल्ली के साथ चल तो रहा हूँ पर मेरा पटना, मेरा भागलपुर, वो राजमार्ग, वो ढाबा, वो मक्खियाँ, वो मेरा राजा की माधुरी के साथ रोमांस है की अब भी पीछा नहीं छोडता...........और अब मैं चाहता भी नहीं !!

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